खुद को बेहतर बनाने की कला सीखिए इस लेख में
अगर हम खुद से ही खुद को बेहतर बनाने की कला सीख लें तो हमारा जीवन संवर जाए
जीवन में एक बार नहीं बल्कि हजार बार ऐसे अवसर आते हैं जो व्यक्ति को जीवन की सच्चाई से रूबरू कराते हैं, तथा उसको कुछ सीखने के लिए प्रेरित करते हैं।
ऐसे अवसर या स्थिति में व्यक्ति अपने भीतर की कमजोरियों और अवगुणों या गलतियों को बखूबी पहचानता है और सोचता है कि आज के बाद ऐसी गलतियां नहीं करूंगा।
जीवन में सदगुणों को अपनाऊंगा और खुद को औरों से बेहतर बनाकर जीवन को आनंद, सुख एवं निश्चिंतता से बिताने का प्रयास करूंगा।
मगर एक सत्य यह भी है कि ऐसा विचार तो हर कोई करता है, पर खुद को बदलने का प्रयास कोई-कोई ही करता है।
असल में व्यक्ति अपने अंदर से प्रेरित होने के बजाय बाहर की दुनिया से ज्यादा प्रभावित रहता है।
वह अपने भीतर की ओर कम जबकि बाहर की ओर ज्यादा देखता है और इसी कारण वह जीवन के मूल रूप और जीवन के असली सुखों से वंचित रह जाता है।
खुद को औरों से बेहतर बनाकर जीने की कला वह कभी सीख ही नहीं पाता है और फिर भय, चिंता, द्वेष, मोह, लालच, वैर, दुश्मनी, दुख, कष्ट आदि की पतवार चलाते-चलाते अपनी जीवन नैया को लेकर एक दिन मृत्यु के सागर में उतर जाता है। इस तरह उसका जीवन व्यर्थ ही चला जाता है।
यह जरूरी नहीं है कि व्यक्ति खुद को औरों से बेहतर बनाने के लिए किसी गुरु या किसी संस्थान में जाकर प्रशिक्षण ले। यह ट्रेनिंग तो वह खुद से ले सकता है।
अपनी गलतियों, अपने अनुभवों और अपने विचारों के अध्ययन और विश्लेषण के बल पर खुद औरों से बेहतर बनाने की कला में पारंगत हो सकता है।
वह ऐसा किस प्रकार कर सकता है या उसे इस कला को कैसे सीखना चाहिए,उसके बारे में कुछ खास टिप्स यहां दी जा रही हैं।
अगर आप इनका पालन करेंगे तो निश्चय ही लाभ प्राप्त होगा।
1) बाहर और भीतर में संतुलन
हमारे आसपास हर समय कुछ-न-कुछ घटित होता ही रहता है और इसमें बहुत कुछ ऐसा भी घटित होता है जो हमारे तन-मन का संतुलन बिगाड़ देता है। हमारे धैर्य और दृढ़ता को कमजोर करता है।
फलतः कई बार हमारे भीतर कोई मानसिक या व्यावहारिक दोष प्रकट हो जाता है और हम कोई ऐसी गलती या अपराध कर बैठते हैं जिसके कारण काफी कष्ट या दुःख उठाने पड़ते हैं। इतना ही नहीं हमें दूसरों के सामने शर्मिंदा या लज्जित भी होना पड़ सकता है।
इसी कारण हम दूसरों से बेहतर जीवन जीने के बजाय उनसे घटिया जीवन जीने पर विवश हो जाते हैं। अतः हमेशा अपने आपको इस प्रकार से तैयार रखना सीखिए कि आपको बाह्य घटनाएं इतनी गहराई से प्रभावित न कर सकें कि आपके भीतर का माहौल ही असंतुलित या खराब हो जाए।
बाहरी परिस्थितियों को समझने और उनके साथ सामंजस्य बैठाने का हुनर अपने भीतर पैदा कीजिए। कोई भी परिस्थितियां अच्छी या बुरी कैसी भी हों, स्थाई नहीं होतीं और न ही हमेशा के लिए टिकती हैं।
इनका धैर्य के साथ सामना करने की ठान लोगे तो खुद को संतुलित बनाए रखना आपको स्वंय ही आ जाएगा।
2) दूसरों के प्रति सोच या मनोभाव
दूसरों के प्रति आपकी सोच या मनोभाव जैसे होते हैं आपके आचार-व्यवहार और मन की स्थिति भी वैसी ही होती है।
आप दूसरों के प्रति मन में अच्छी सोच या स्वच्छ भाव रखते हैं तो आपका मन प्रसन्न रहता है और कल्याणकारी कार्यों में लीन रहकर जीवन में उन्नति करते हैं और असली सुख को अनुभव करते हैं।
ऐसी स्थिति में आपका जीवन दूसरों से बेहतर होता है और आप अपने आसपास के अनेक मन से भटके हुए लोगों के लिए प्रेरणा का पात्र भी बनते हैं।
इसके विपरीत यदि आपकी सोच या मनोभाव दूसरों के प्रति अच्छे नहीं होते हैं और आप दूसरों को लेकर हमेशा संशय में पड़े रहते हैं तो आपका अधिकांश समय व्यर्थ के चिंतन में बीत जाता है।
आप खुद ही बुराइयों से संबंध बनाते चले जाते हैं और जीवन को सुख या कामयाबी देने वाले कार्य करने की ऊर्जा या क्षमता यूं ही व्यर्थ हो जाती है। अतः दूसरों से बेहतर जीवन जीने की कामना रखते हैं तो दूसरों के प्रति अच्छी सोच या स्वच्छ मनोभाव रखने की आदत डाल लीजिए।
3) अपना जीवन और अपना जीवन दायरा
संसार में सबका जीवन समान नहीं होता है और न ही सब लोग समान परिस्थितियों में जीवन जीते हैं। सबका अपना-अपना जीवन तथा अपना-अपना जीवन का विशेष दायरा होता है जिसमें रहकर उन्हें जीना होता है।
मतलब यह कि राजा,मंत्री, डाक्टर, वकील, मजदूर, किसान,विद्यार्थी आदि सबका अपना अलग-अलग जीवन दायरा होता है और वे सब अपने ही दायरे में रहकर जीवन जीते हैं।
इसीलिए कभी भी अपनी तुलना किसी अन्य से मत कीजिए, क्योंकि इस प्रकार किसी सुख के बजाय दुख ही मिलेगा और आपका जीवन दूसरों से बेहतर होने के बजाय दूसरों से बदतर ही होगा।
अच्छा यही रहता है कि आप अपने जीवन दायरे में खुश रहना सीखें। अपने जीवन दायरे को खूब मन लगाकर सजाएं-संवारें और इस लायक बनाएं कि उसमें रहकर जीने में किसी राजा या शहंशाह से ज्यादा मजा आए।
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