अच्छे संस्कारोंसे आपके जीवन मे मिल सकते हैं ये ५ लाभ
खुद को बदलें मगर संस्कारों को बदलने से करें परहेज
आजकल के इस दौर को आधुनिकता का दौर मानने वाले लोगों की धारणा की बात करें तो वे पुरानी परम्पराओं या संस्कारों को कूड़े-कर्कट के समान ही मानते हैं और उन्हें त्याग देने की बात करते हैं।
उनके विचार से जो कल था वह पुराना हो चुका है और आज उसे रखने से जीवन में कोई लाभ प्राप्त नहीं होता है।
वर्तमान को सुख से जीना है तो खुद को बदलने के साथ-साथ अपनी सोच और संस्कारों को भी बदलना होगा।
मगर सोचकर देखा जाए तो उनकी यह धारणा गलत ही लगती है, क्योंकि जो संस्कार हमें हमारे पूर्वजों से मिलें हैं क्या आधुनिकता को अपनाने से उनका हमसे बिलकुल संबंध खत्म हो जाएगा?
नहीं होगा, क्योंकि जो संस्कार पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमें प्राप्त होते रहे हैं वे किसी-न-किसी रूप में हमारे परिवार व समाज में बने रहते हैं।
वे हमारे स्वभाव का हिस्सा होते हैं और हमारे आचार-व्यवहार में अक्सर दिखाई देते ही रहते हैं।
अगर कोई ध्यान देने वाली बात है तो यह है कि हमें ऐसे संस्कारों के त्याग करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए जो हमारी उन्नति और हमारे अच्छे इनसान होने में बाधक बनते हों, मगर उन संस्कारों को कभी भी नहीं छोड़ना या बदलना चाहिए जो कल भी हमारी उन्नति में मदद करते थे और आज भी उतना ही योग दे सकते हैं।
सीधा-सा यही मतलब है कि अच्छे संस्कारों का कल जो महत्व था आज भी उतना ही महत्व है और उन्हें बदलकर हम खुद ही अपने और अपने बच्चों के अहित का मार्ग प्रशस्त करते हैं जो हमें कभी नहीं करना चाहिए।
आइए, जानें कि आधुनिकता की चमक-दमक या इसके प्रदर्शन की खातिर विरासत में मिले संस्कारों को बदलने से परहेज करके हमें क्या-क्या लाभ प्राप्त हो सकते हैं अथवा हम और हमारे बच्चे जीवन की किस हानि से बच सकते हैं।
१] सामाजिकता या सामाजिक तौर पर जिम्मेदार बने रहने के संस्कार हमें विरासत में मिलते आए हैं और हमें इनका पालन करना बचपन से ही सिखाया जाता है।
मगर आज के आधुनिक दौर में व्यक्ति के पास घर में ही मनोरंजन, ज्ञान-विज्ञान की जानकारी आदि के साधन उपलब्ध हो गए हैं और वह हमेशा ही उनसे चिपका रहता है।
उनके साथ घर में ही बने रहने की आदत के कारण वह व्यक्तिगत एवं सामाजिक जिम्मेदारियों को भूलता जा रहा है और उसमें सामाजिकता की कमी आती जा रही है।
व्यक्ति में सामाजिकता की कमी से समाज का पारंपरिक ताना-बाना बिगड़ता है और परस्पर मिलजुलकर जीवन जीने की परिपाटी खत्म होती है।
२] व्यक्तिगत या पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति जीवन की शुरुआत से अंत तक गंभीर बने रहने की रिवाज हमारे समाज में बहुत पुरानी है और यह रिवाज खराब नहीं है।
यही वो रिवाज जिसके तहत बच्चे अपने बचपन से ही माता-पिता या परिवार के अन्य बड़ों के साथ घुलमिलकर रहते हुए अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को समझते हैं और फिर बड़े होकर उन्हें निभाते हैं।
परिवार के सदस्यों के प्रति उनमें गहरा प्यार व अपनापन बना रहता है और अपने माता-पिता आदि को कभी भी बेसहारा नहीं छोड़ते हैं।
उनके प्रति सदा जुड़े रहने तथा उनको पूरा प्यार, मान-सम्मान देने तथा उनकी सेवा और देखभाल करने में कभी किसी प्रकार की दिक्कत नहीं आती है।
अन्य सभी रिश्तों में भी प्रेम तथा अपनापन बना रहता है और इसी कारण स्वार्थों के कारण टूटने वाले रिश्तों की संख्या में कमी आती है।
३] दया भाव और उदारता के गुण ही हैं जो मानव को उसकी मानवता से जोड़कर रखते हैं और उसे स्वार्थ और लालच से बचकर त्याग तथा परोपकारिता के लिए प्रेरित करते हैं।
आधुनिक संस्कृति पूरी तरह उपभोक्तावादी संस्कृति बनती जा रही है तथा इसमें भावों को महत्व न देकर अर्थ और भौतिक सुखों को महत्व दिया जाता है।
इसी कारण मनुष्यों के बीच स्वार्थपरता या स्वहित की प्रवृत्ति की बढ़ती जा रही है तथा परिणामस्वरूप आपसी दुराव या दूरी गंभीर रूप से बढ़ने लगी है।
इस आपसी दुराव के भविष्य में गंभीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं।
४] नैतिक मूल्यों का मानव जीवन में बहुत बड़ा स्थान होता है और यही के चरित्र को गढ़ते हैं।
अगर मनुष्य में नैतिक मूल्यों का अभाव हो जाता है तो वह किसी भी गलत काम को करने से नहीं घबराता है।
उसे लोक लिहाज की परवाह नहीं रहती और इसी कारण उसका आचार-व्यवहार व चरित्र भ्रष्ट होता जाता है।
वह अपनी इच्छापूर्ति के मामले में पशुओं जैसी प्रवृत्ति अपना लेता है और फिर समाज के अहित पर भी उतर आता है।
इस तरह समाज में अपराध तथा उन्हें अंजाम देने वाले आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों की संख्या बढ़ती है।
हमारे भारतीय समाज में नैतिक मूल्यों की बहुत अधिक कीमत है और यहां प्रारंभ से ही इनके पालन पर बल दिया जाता है।
अतः आधुनिकता को दिल से धारण करें मगर नैतिक मूल्यों को अपनी आधुनिकता भार या दाग़ कदापि न समझें,क्योंकि इनके अभाव में व्यक्ति किसी भी युग में एकाग्रता से आगे बढ़ कर सुख तथा उन्नति को प्राप्त नहीं कर सकता।
५] हमारे खान-पान के पारंपरिक तरीके तथा सादगी ऐसी थी कि लोग पुराने जमाने में आज से ज्यादा स्वस्थ रहते थे और लंबा जीवन भी जीते थे।
मगर आजकल के इस आधुनिक दौर में लोग अपनी जवानी या कच्ची उम्र में ही उन गंभीर रोगों का शिकार बनने लगे हैं जो पुराने समय में बुढ़ापे के रोग कहलाते थे, जैसे कि मधुमेह, मोटापा,रक्तचाप,ह्रदय रोग आदि। यह आधुनिकता के मोह में आकर गलत खान-पान या स्वाद का ही नतीजा है।
यदि व्यक्ति भोजन के पारंपरिक तरीकों को बनाए रखे और सादे व पौष्टिक आहार पर बल दे तो स्थिति अपने आप सुधर सकता है।
अतः खान-पान संबंधित संस्कारों बरकरार रखना हितकर ही सिद्ध होगा।
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