बिधवा बूढ़ी औरत की व्यथा
तेरे जानें के बाद अब कुछ भी अच्छा नही लगता,
ये महल, आँगन, दरवाजा सच्चा नही लगता।
जिसे तुम बोल कर खेलाते थे, बुढ़ापे का सहारा,
ओ बेटा भी अब सच में कहूं वैसा नही लगता।।
मेरा जीवन भी उन लोगों को अब भार लगता है,
जिनको गर्भ में पाली उन्हीं को बेकार लगता है।
मेरी बेवक़्त खाँसी भी उन्हें तकलीफ़ देती है,
जिनकी एक खाँसी भी हमें बेचैन करती थी।।
जिस महल को हम नें बड़ी शौक से सजाया था,
रंग रोगन भी हम नें बड़ी बारीक़ी से कराया था।
उसी घर के कमरे अब बहुत बेदरंग लगतें हैं,
तेरे जाने के बाद देखो न सब काटने दौड़ते हैं।।
जब तुम थे तब समाज में मैं मंगल की मूरत थी,
हर शुभ कार्यो में मेरी परम् जरूरत थी।
तेरे जाने के बाद अब मैं क्या वैसी नही रही,?
दुर्गा सरस्वती और लक्ष्मी जैसी नही रही।।
अब तो मेरे पास आने से सब कोई कतराता है,
पोता, नाती भी बस आशीर्वाद के लिए आता है।
क्योंकि वही तो है जो अब मेरे पास रह पाया है,
ये काँपती हाथोंने पहले सब इन्ही पर लुटाया है।।
अब तो तेरे पास आ जाऊ यही कामना करती हूं,
ईश्वर से दिन रात यही करबद्ध प्रार्थना करती हूँ।
सच में तेरे जाने के बाद यहाँ अच्छा नही लगता,
ये महल, आँगन, दरवाज़ा अब सच्चा नही लगता।।
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