दयावान डॉक्टर: सुधा मूर्ति के पिता की कहानी
बात 1942 की हैं। उस ज़माने में MBBS से पहले LMP की डिग्री हासिल करनी होती थीं। डॉ. आर. एच. कुलकर्णी (सुधा मूर्ति जी के पिता) 22 साल के थे। उनकी पोस्टिंग महाराष्ट्र-कर्नाटक कि सिमा पर स्थित चंदगढ़ गांव की डिस्पेंसरी में हुई थीं।
वहाँ कुछ ज्यादा काम नहीं था। कभी कभार सर्दी खाँसी जैसे तकलीफ़ोके लिए इंजेक्शन लेने पेशंट आया करते थे। डॉक्टर वहाँ बोर हो जाते थे।
फिर जुलाई के महीना आया। एक रात को तेज बारिश होने लगी। अचानक उनके घर के दरवाजे पर किसीने जोर से दस्तक दी।
बाहर घुप्प अंधेरे में आठ लठैत कम्बल ओढ़े खड़ें थे। दो कारें भी खड़ी थीं। उन्होंने डॉक्टर साहब को तुरंत अपने सामान के साथ चलने का हुक्म दिया।
तेज बारिश में डेढ़ घंटे बाद कार एक घर के पास आके रुकी। चारो तरफ घना अंधेरा। लठैतोंने डॉक्टर साहब को घर के अंदर धकेला। वहाँ एक 17 वर्षीय लड़की की डिलीवरी करने का आदेश दिया। अंदर पूरा अंधेरा था, बस एक चिमनी जल रही थीं। लड़की के पास एक बूढ़ी औरत बैठी थीं, जो बहरी थीं।
डॉ. कुलकर्णी उस समय युवा थे, उन्हें स्त्री प्रसव और डिलीवरी का कोई पूर्व अनुभव नही था। वो काफी घबराए हुए थे। उनके मुकाबले वो 17 साल की लड़की जादा आश्वस्त लग रहीं थीं।
उसने कहा “डाक्टर, मैं जिन नही चाहती, मेरे पिताजी जमींदार हैं। उनकी 500 एकड़ की खेती हैं। लड़की होने के कारण उन्होंने मुझे कभी स्कूल नही भेजा। मेरी पढ़ाई के लिए घर मे ही शिक्षक रखें। पता नहीं, कब और कैसे मुझे उससे प्रेम हुवा, औऱ मैं गर्भवती हुईं। शिक्षक अपनी जान बचाने के लिए वहासे रफूचक्कर हो गया। गर्भ गिरने के सभी घरेलू तरीके अपनाए। वो नाकामयाब रहें। अंत मे परिवार ने इज्जत बचाने के लिए मुझे यहापे रखा।…
डाक्टर साहब, आप मेरी डिलीवरी न करें। कहिए कि हमे ऑपरेशन के लिए यहाँसे बेलगांव जाना होगा। इस बीच यक़ीनन मैं चल बसुंगी। डाक्टर साहब, मुझे मरना हैं।”
डॉ. कुलकर्णी ने बोला, “डाक्टर का काम मरीज़ की जान बचना होता हैं। न क़ी लेना। मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूंगा।”
फिर मेडिकल पढ़ाई का जो भी कुछ प्रसव के बारे में याद आया, उसका उन्होंने यहाँ उपयोग किया।
वहाँ कुछ भी सुविधा न होते हुए उन्होंने जुगाड़ू तरीके से उस लड़की की डिलिवरी की। कहते हैं ना, असाधारण परिस्थितियों में साधारण लोगों में भी विलक्षण हिम्मत आ जाती हैं।
युवती ने नवजात बच्ची को जन्म दिया। नवजात बालक जन्म के बाद कुछ आवाज करता हैं। पर इस बच्चे ने वो आवाज न कि।
युवती को बच्ची के जन्म के बारे में जब पता चला तो उसने डॉ. साहब से बहुत आरजू-मिन्नतें की, की लड़की को जिंदा करने की कोशिश मत करें। जी के उसका भी वहीं हश्र होगा, जो मेरा हुवा है।
पर डॉ. कुलकर्णी ने उसकी कोई दलील न सुनी। डॉक्टर की हैसियत से उनसे जो कुछ बन पाया उन्होंने किया। उन्होंने बच्ची के पैर पकड़कर उलटा लटकाया और उसकी पीठ थपथपाई। तो बच्ची कुछ रोइ। जो कि उसके जिंदा होने का सबूत था।
जब डॉक्टर घर के बाहर निकले तो बाहर खड़े लठैतोंने उन्हें बतौर फीज 100 रुपये थमाए। 1942 में यह बहुत बड़ी रकम थीं। शायद आज के 10 हजार के आसपास।
पैसे मिलने के बाद डॉक्टर कुलकर्णी ने उस युवती की मदद करनेकी ठानी। अपने कुछ औजार लेने के बहानें, वो दुबारा घर के अंदर गए।
उन्होंने उस युवती को एक चिट्ठी के साथ वहीं 100 रुपये दिए और उसे कहा, “देखो, तुम पुने जाओ। वहाँ एक नर्सिंग कॉलेज हैं। वहाँ मेरा मित्र आपटे क्लर्क हैं। उसे ये चिठ्ठी दिखाना, औऱ बताना की आर. एच. ने तुम्हें यहाँ भेजा है। वह तुम्हारी मदद जरूर करेगा।”
बादमे काफ़ी सारे साल गुजर गए। डॉक्टर कुलकर्णी, इस बात को भूल भी चुके थे।
कुछ सालों बाद उनकी शादी हुई। सुधा जी की माँ, स्कूल में टीचर थी। पत्नी के बचाए हुए पैसों से ही डॉ. कुलकर्णी ने आगे की पढ़ाई मतलब MBBS की।
औऱ 42 साल की उम्र में उन्होंने गायनेकोलोजि में एम. एस. किया। अक्सर लोग डॉक्टर कुलकर्णी का मजाक उड़ाते थे आपकी, ‘आपकी बेटियां तो अब बड़ी हो गई हैं। फिर क्यों आप आगे पढ़ रहे हैं?’
पर डॉक्टर कुलकर्णी को पढ़ने की बेहद लगन थी। उन्हें स्त्री विशेषज्ञ बनने की प्रेरणा अपने उस पहले मरीज से मिली थीं। जिसकी जान बचाने के साथ साथ उसका जीवन सवारना भी उन्हें जरूरी लगा।
रिटायमेंट के बाद भी डॉ. कुलकर्णी मेडिकल की कॉनफरन्स में जाते रहते, और ज्ञान अर्जित करते रहते।
एक बार वो औरंगाबाद में एक स्त्री विशेषग्यों की कॉनफरन्स में गए। वहाँ पर एक महिला डॉक्टर ने बहुत सुंदर भाषण दीया। जिससे डॉ. कुलकर्णी बहोत प्रभावित हुए।
बातचीत में डॉ. चंद्रा ने बताया कि वे गांवो में महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए काम करती हैं। इसी बातचीत में डॉक्टर कुलकर्णी के एक मित्र ने उन्हें आर. एच. कहके संबोधित किया।
यह नाम सुनते ही डॉ. चंद्रा लपककर डॉक्टर कुलकर्णी के पास आई औऱ उन्होंने पूछा क्या आप कभी चंदगढ़ की किसी डिस्पेंसरि में काम किया करते थे?
“हा, बहुत साल पहले!” डॉक्टर कुलकर्णी ने उत्तर दिया।
डॉक्टर चंद्रा वहीं बेबस युवती थीं जिसकी 1942 में डॉक्टर कुलकर्णी ने असामान्य हालात में डिलीवरी की थीं।
डॉक्टर कुलकर्णी की स्त्रिविशेषज्ञ बनने की प्रेरणा वो युवती थीं औऱ डॉक्टर चन्द्रा की जीवन की लड़ाई लड़ने की प्रेरणा डॉक्टर कुलकर्णी थे।
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